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उपेक्षित वर्ग उन्नयन हेतु मुलायमसिंह यादव के विशिष्ट प्रयास-

 

mulayamsingh yadav work for ultra poor people

उपेक्षित वर्ग उन्नयन हेतु नेताजी के
विशिष्ट प्रयास-

        केवल भारत ही नहीं विश्व के प्रत्येक क्षेत्र में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक भेदभाव पुराने समय से प्रचलित रहे हैं. हमारी सामाजिक व्यवस्था में चौथे वर्ग शूद्र को स्पर्श माना जाता है. यह समस्या लंबे समय ऐ परवर्तन में हैं, उनके साथ खाना-पीना, यहां तक क्यों नहीं छूना भी प्रतिबंधित था. भारत में डॉ अम्बेडकर जैसे बुद्धिजीवियों ने संविधान में भेदभाव को खत्म करने के लिए प्राविधान किये गए थे. यहाँ धर्म-भेद और जाति-भेद को छोटी-छोटी घटनाओं से देखें जैसे एक चाय की दुकान पर कुछ हिंदू वर्ग को कांच के गिलास में चाय दी जाती थी यदि कोई दलित आ जाए तो उसे मिट्टी के गुंडे में चाय दी जाती थी और मुसलमान जैसे दिखने वाले ग्राहक के लिए दुकानदार के पास एक ही जवाब होता था, आपको चाय देने के लिए मेरे पास कोई बर्तन नहीं है. ऐसे हालात में देश के अन्दर भेदभाव रहा है. अभी तीन-चार दशक पूर्व तक हमारे रेलवे स्टेशनों पर पानी पिलाने वाले कर्मचारी हाथों में बाल्टी लेकर आवाज लगाते थे- हिंदू-पानी, मुसलमान-पानी. स्टेशनों पर पूरी सब्जी बेचने वाले हिंदुओं के पास पीतल के बर्तन होते थे. वह अपनी दुकान पर चोटी वाले हिंदू का चित्र लगाए रहते थे. इसी प्रकार मुसलमानों की दुकान पर सिल्वर के बर्तन होते थे तथा वे दाढ़ी वाले मौलवी की टोपी की तस्वीर लगाकर रखता था. आजादी के अनेक वर्षों बाद भी यह स्थिति बनी रही. ऐसा भेदभाव छुआछूत हमारी इस मानसिकता का अंग है. जो इस बात पर आधारित है मैं, मेरा वर्ग, मेरी जाति, मेरा वंश, मेरा देश किसी अन्य से श्रेष्ठ है, पवित्र है.

परंतु विडंबना ही है कि आजादी के इतने वर्षों के बाद भी भारत में धर्म और जाति को लेकर होने वाला भेदभाव आज भी कायम है. अगर हम बड़े महानगरों को छोड़ दें तो छोटे ग्रामीण इलाकों और शहरों में आज भी दलित-पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता है. जहाँ मैं रहता हूँ, वहां धर्म के आधार पर मकान के लिए प्लाट नहीं ले सकते हैं.

नेता जी दलित-पिछड़े वर्ग के नेताओं में से हैं और उनका ग्रामीण सामाजिक परिवेश में पालन पोषण हुआ है. उन्होंने यह भेदभाव वाला व्यवहार और उपेक्षा बड़े निकट से देखी है और जब कोई व्यक्ति ऐसी विकृत मानसिकता और परंपराओं और व्यवस्थाओं का शिकार होता है तो निश्चय ही उसके मन में आक्रोश उत्पन्न होता है. अंग्रेजों से उत्पीड़ित होकर ही गांधी जी ने भारत को पूर्व से मुक्त कराने के लिए संकल्प लिया और उसे पूरा किया. वहीं दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मंडेला ने अत्याचार का विरोध किया और लंबे संघर्ष के बाद एक दिन उस देश के राष्ट्रपति बने. जहां कभी उन्हें निम्न दृष्टि से देखा जाता था. नेताजी श्री मुलायम सिंह जी ने भी दलित-पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के साथ होने वाली उपेक्षा और भेदभाव को देखते हुए अपना राजनीतिक संघर्ष प्रारंभ किया था. उनका संकल्प रहा है कि वे उपेक्षित वर्गों को अन्य विकसित वर्गों की भांति समान और वास्तविक सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अधिकार और पहचान दिलाएंगे. उन्हें वह सम्मान देंगे जिसके वह हकदार हैं और जो संविधान हमें उपलब्ध कराता है. क्योंकि वे स्वयं उपेक्षित वर्ग से संबंधित हैं. उनके हृदय में इन वर्गों के लिए विशेष दया और सहानुभूति रही है.

नेताजी मुलायमसिंह यादव की सामाजिक न्याय की धारणा:-

भारतीय संविधान में सामाजिक समानता को मूल अधिकारों के रूप में मान्यता दिए जाने के बाद भी भारत के राजनीतिक और सामाजिक जीवन में जातीय भेदभाव और छुआछूत अभी तक विद्यमान है. यद्यपि डॉक्टर अंबेडकर जैसे समाज सुधारक ने अपने स्तर से इस दिशा में काफी कार्य किया और उनके प्रयासों का प्रतिफल आज दिखाई देता है. किंतु स्वतंत्रता के बाद भारत के सामाजिक जीवन में बदलाव जिस गति से आया उस गति से क्षेत्र में बदलाव नहीं हो सका. यद्यपि परंपरावादी जातीय भावना से भरा उच्च जातियों का परंपरावादी एकाधिकार धीरे-धीरे समाप्त हो रहा है. किंतु एक गैर परंपरावादी और जातिवादी व्यवस्था में जन्म लेकर एक नई समस्या को खड़ा कर दिया है. समय के साथ-साथ जाति से उपजाति का निर्माण होता गया. शुद्र या पिछड़े-दलितों ने अपने अधिकारों को लेकर संघर्ष अनवरत किया. निचली-दलित-पिछड़ी जाति के लोगों ने परिस्थिति के अनुसार अवसर का लाभ उठाने की चेष्टा की. उनमे वे कुछ स्तर तक सफल रहे तो उसमें से कुछ को लगातार दबाया जा रहा है. जातीय उच्चता का घमंड अभी भी जारी है. इस जातीय और भेदभाव के कारण दलित-पिछड़ों का संघर्ष लगातार लम्बा होता जा रहा है.

सामाजिक न्याय की आवश्यकता ही छोटी जातियों के लोगों के उत्थान के लिए की गयी थी. क्योंकि आजादी के कई वर्ष बीत जाने के बाद भी उनकी आर्थिक सामाजिक और आर्थिक स्थिति ज्यादा बेहतर नहीं हो पाई है. सामाजिक न्याय व्यवस्था से जहां समाज में जीने वाले प्रत्येक व्यक्ति को मूलभूत सुविधाएं अधिकार में सम्मान मिले. किसी भी व्यक्ति के साथ जाति क्षेत्र के आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिए. सभी के लिए समान अवसर उपलब्ध कराए जाने चाहिए. जिन जातियों को समाज के द्वारा लंबे समय तक दबाया जाता है. रोजगार एवं राजनीति क्षेत्रों में पिछड़े वर्गों को उठाना है तो इनके लिए कुछ विशिष्ट किए जाने की आवश्यकता है. सभी जातियों, वर्गों और सम्प्रदायों के साथ न्याय होगा. इन विशेष अवसरों को संविधान में आरक्षण का नाम दिया गया है. जो उपेक्षित वर्गों के उत्थान के सिद्धांत पर आधारित है.

 वर्तमान में रोजगार और जनसंख्या के मध्य असंतुलन की स्थिति है. युवा शक्ति बर्बाद हो रही है. ऐसी खराब परिस्थितियों में युवा क्या करें, क्या ना करें. उसके पास न गांव में रोजगार है और न ही शहर में. हालात बिगड़कर यहां तक पहुंच चुके हैं कि जो 1990 के दशक में उसके पास सरकारी स्तर पर जो अवसर थे, उन्हें भी घटाया जा रहा है. कहीं शिक्षा, रेलवे में तो कहीं सेना-पुलिस-स्वास्थ्य विभाग में उन्हें संविदा-ठेकेदारी पर लगाकर शोषण किया जा रहा है. उसे इस हालात में पहुंचा दिया गया है कि संविदा पर युवा 6000 रू. महिना से लेकर के 12000 रू. प्रति माह के फिक्स वेतन पर अपना और अपनी आने वाली पीढ़ियों के भविष्य को बर्बाद करने में लगा गया है. ऐसे माहौल में युवा क्या भविष्य निर्माण कर सकते हैं, क्या शिक्षा प्राप्त कर लेंगे और शादी-आवास के लालन-पालन की व्यवस्था कर लेंगे और जो उनके बच्चे होंगे, उन बच्चों के लिए क्या बेहतर भविष्य देने के लिए शिक्षा-स्वास्थ उपलब्ध करा सकते हैं? इतने कम पैसे में युवा किस तरह अपने जीवन को जी सकता है? क्या उससे बेहतर हो सकता है? आज की पूजीवादी आर्थिक नीतियां हालात को बदतर करने के साथ-साथ शांति को छीन रही हैं और युवाओं को आत्महत्या जैसे कदम उठाने के लिए बाध्य करने वाली हैं.

 

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