समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायमसिंह यादव के अनुसार किसी भी देश के नागरिकों को तीन प्रकार के अधिकार प्राप्त होते हैं-नागरिक अधिकार जैसे कानून की नजर में सब बराबर, राजनीतिक अधिकार जैसे व्यस्क मताधिकार, सामाजिक अधिकार जैसे सामाजिक सांस्कृतिक बराबरी और सत्ता में बराबरी के आधार पर साझेदारी का अधिकार
सामाजिक अधिकार मुख्यतः
समता और बंधुता के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए होते हैं और नागरिक तथा राजनीतिक
अधिकार मुख्यतः स्वतंत्रता के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए होते हैं. मुख्य रुप
से ध्यान रखने वाली बात यह है कि नागरिक अधिकार और राजनीतिक अधिकार निजी होते हैं और प्रत्येक नागरिक को प्राप्त होते
हैं, लेकिन सामाजिक अधिकार व्यक्तियों को नहीं वरन समाज के समूहों को मिलते हैं.
इसलिए उन्हें सामाजिक कहा जाता है और उनसे जुड़ी न्याय कल्पना को सामाजिक न्याय
कहा गया है.
हमारे जो विद्वान गण
जाति के आधार पर आरक्षण का विरोध करते हैं और आर्थिक आधार की बात करते हैं. उन्हें
आर्थिक आधार पर आरक्षण की कोई योजना बनाकर आज तक पेश क्यों नहीं की है या देश के
सामने प्रस्तुत क्यों नहीं की गई है? आर्थिक आधार पर आरक्षण की वकालत संविधान
निर्माण के समय से लेकर आज तक की जाती रही है लेकिन किसी भी महाज्ञानी ने भी आज तक
यह नहीं बताया कि आर्थिक आधार पर सामाजिक समूहों की शिनाख्त कैसे की जाएगी? क्या
एक अरब की जनसंख्या वाले इस देश में लगभग 21 करोड परिवारों की आरक्षण के लिए पात्रता अथवा पात्रता तय की जा सकती है? क्या आय के आधार पर आर्थिक समूह का निर्धारण
केवल जनसंख्या का ही किया जा सकता है? व्यापार और निजी व्यवसाय में लगे व्यक्तियों
की आय को मापने के लिए हमारे पास केवल आयकर विवरणों का साधन है. लेकिन कौन नहीं जानता
कि आयकर की चोरी इस देश में धर्म बन गया है. जिसके लिए कई संस्थाएं विशेषज्ञ तैयार
करती हैं और करोड़ों रुपए का व्यापार करने वाली फर्म आयकर से मुक्त हो जाती हैं.
इसके अतिरिक्त गणित ऐसे-ऐसे हैं जिन तक आयकर कर्मचारियों की पहुंच ही नहीं है. जिस
देश में कुल राष्ट्रीय आय के लगभग तीन चौथाई काला धन उसमें आमदनी के आधार पर
आरक्षण की बात करना शिवाय मूर्खता के और क्या हो सकता है. हम मान भी लें कि किस
प्रकार आर्थिक समूह बना भी लिया जाए तो उनसे प्रतिवर्ष परिवर्तन की आवश्यकता होगी
क्योंकि लक्ष्मी चंचल होती है. आर्थिक आधार पर समूह के निर्धारण को असंभव मानकर ही
हमारे संविधान निर्माताओं ने जाति के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था की थी क्योंकि वे
जानते थे कि हमारे समाज का मूल समूह जाति ही है. पिछड़ी जातियों में क्रीमी लेयर
लगाकर संपन्न पिछड़ों को भी आरक्षण से बाहर कर दिया गया है, जबकि पिछड़ों का
प्रतिनिधित्व उच्च पदों पर अभी नहीं के बराबर है.
सामाजिक
न्याय को लेकर न्याय के मुद्दे पर हो रही है एक बहस की शुरुआत करते हुए नेताजी ने
कहा था कि हमारे संविधान का पहला शब्द ही सामाजिक न्याय है. इसलिए कोई भी सरकार इस
प्रतिबद्धता से मुकर नहीं सकती है. आरक्षण को लेकर पिछले दिनों जो कटुता का
वातावरण बना बहुत हद तक इस मुद्दे को सही परिपेक्ष्य में नहीं रखे जाने का परिणाम
है. हमारा समाज इस समय करीब 10,000 जातियों में बटा हुआ है. जाति व्यवस्था के
उन्मूलन की दिशा में पहला कदम होगा कि इन 10.000 जातियों और उप जातियों को चार से पांच ग्रुप में समाहित किया जाए. इसके
लिए सारी जनसंख्या को भूस्वामी किसान, भूमिहीन किसान, कारीगर, पिछड़ों, अनुसूचित
जातियों और अनुसूचित जनजातियों के ग्रुप में रखना होगा और उनका सत्ता में समुचित
हिस्सा तय करना होगा. कुछ लोग सत्ता का भोग करें और बाकी सब चुपचाप उनका समर्थन
करते रहे यह ज्यादा दिन नहीं चल सकता, इसके साथ ही हमें देखना होगा कि संविधान की
व्यवस्था के अनुसार सब जातियों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व सरकारी नौकरियों और शासन
सत्ता में मिले. कितने दुःख की बात है कि 1931 के बाद
जातियों के आधार पर गणना न होने के कारण हमारे पास यह जानकारी उपलब्ध नहीं है कि
किस जाति को सरकारी नौकरियों में कितना हिस्सा मिला हुआ है. अतः हमें इसी वर्ष की
जनगणना में विभिन्न जातियों की शिक्षा-प्रशासन आदि की भागीदारी के आंकड़े इकट्ठे करने
होंगे. जिन जातियों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व अर्थात कुल जनसंख्या में किसी जाति
का जो प्रतिशत हो उसका प्रतीक माना जा सकता है, जिन जातियों को हिस्सा मिल गया हो
उन पर आर्थिक कसौटी लगाई जा सकती है. इस अवस्था की हर जनगणना के बाद समीक्षा करके
अधिकाधिक जातियों को आर्थिक कसौटी के अंतर्गत लाने अथवा उन्हें आरक्षण की परिधि से
बाहर करने का क्रम जारी रखा जा सकता है. इस प्रक्रिया के चलने से 100-50 वर्षों में जाति प्रथा के टूटने की संभावना बन सकती है.
वर्तमान में
वस्तुस्थिति यह है कि विश्व में शायद ही कोई देश है, जिसमें आरक्षण/ एफर्मेटिव
एक्शन की प्रक्रिया किसी ना किसी रूप में ना चल रही हो. यूरोप और अमेरिका में भी
आरक्षण/ एफर्मेटिव एक्शन जैसी व्यवस्थाएं चली हुई है. सब देशों में किसी न किसी
प्रकार की विषमता दूर करने के प्रयास चल रहे हैं. कहीं विषमता नस्ल के कारण है तो
कहीं धर्म-भाषा-भौगोलिक स्थिति या संस्कृति के कारण अमेरिका, अफ्रीका, यूरोप,
एशिया में कोई भी देश विषमता की समस्या से मुक्त नहीं है, भारत की स्थिति इस रूप
में भिन्न है कि वहां धर्म, भाषा, लिंग, क्षेत्र आदि की विषमताओं के साथ-साथ जाति
व्यवस्था की भी है और जो धर्म-भाषा आदि की दृष्टि से एक है, उनमें भी भयंकर जातिगत
विग्रह हैं.
भारत की जातिगत
विषमताओं की तुलना नस्ल से की जा सकती है. जातियों की ओर से समान अवसरों की मांग
उठी तो अमेरिका में जानसन प्रशासन ने एफर्मेटिव एक्शन जैसा सकारात्मक कार्यक्रम
नाम से एक योजना चलाई. जिसमें ऐसे लोगों को बराबरी के स्तर पर लाने के लिए
प्रतिपूरक व्यवस्था की गई. इस संदर्भ में थॉट ऑफ जस्टिस में जॉन रॉल्स
ने कहा था कि एक सामान सुविधा और यहां तक कि प्राकृतिक योग्यता भी विशेष अधिकारों
का मनमाना तरीका है. कोई भी सामाजिक नीति तभी न्याय पूर्ण हो सकती है, जब अतिरिक्त
सुविधा वंचित वर्गों को विशेष प्राथमिकता के तहत दी जाए. इस विचार के अनुसार यह सुविधा
देने की नीति के तहत वंचित वर्गों को विशेष अवसर देने का सिद्धांत कई देशों में
लोकप्रिय हुआ है और इसे उन देशों में भिन्न-भिन्न नाम दिए गए हैं. यथा एफर्मेटिव
एक्शन, पॉजिटिव डिस्क्रिमिनेशन, सकारात्मक कदम, सकारात्मक नीति, विपरीत पक्षपात की
नियुक्तियां आदि, समाजशास्त्री जान पोर्टल ने कनाडा के संबंध में
अपने एक लेख में लिखा है कि श्रेणी वाले ढांचे में अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व
देने के लिए कोटा प्रणाली का विकास अमेरिका से कहीं ज्यादा कनाडा से हुआ है.
इस आरक्षण अवस्था को
लेकर जॉन कोटर ने उक्त लेख में एक जगह लिखा था कि कनाडा में अंग्रेजी
भाषी कर्मचारी फ्रेंच कर्मचारी को आरक्षित युक्तियां पदोन्नति से उसी प्रकार
ईर्ष्या करता है जैसे अमेरिका का श्वेत कर्मचारी. ऐसे ही हालात भारत में भी
कुछ मेरिट धारी के भी हैं. ऐसे लोग सकारात्मक पक्षपात, एफर्मेटिव एक्शन से या
पुरुष स्त्रियों के पक्ष में किए गए सकारात्मक भेदभाव से ईर्ष्या करते हैं. किंतु
इन सब घटनाओं के बावजूद समतामूलक समाज के निर्माण के लिए अधिकार और वंचित समूह के
लोगों को विशेष अवसर देने का सिद्धांत विभिन्न प्रकार की विषमताओं को दूर करने के
उपाय रूप में सब जगह माना जाने लगा है. यहां तक कि अब लोकतंत्र की परिभाषा ही बदल
गई है. अब लोकतंत्र बहुसंख्यक जनता की इच्छा से चलने वाला शासन नहीं है. सबकी
इच्छा से चलने वाला सब की साझेदारी से चलने वाला शासन माना जाता है. इस नई
व्यवस्था के निर्माण में भारत की गठबंधन सरकारों का विशेष योगदान है. परंतु जब से
भारत में पूर्ण बहुमत की मजबूत सरकार आई है. उन्होंने सब वर्गों और धर्म से प्रयाप्त
हिस्सेदारी देने का काम नहीं किया है. जिसके कारण अन्य वर्गों में एक विशेष असंतोष
की स्थिति दिखाई देती है और जिसके परिणाम स्वरूप वर्तमान में युवा शक्ति का
बहुसंख्यक होना. जिसको डिविडेंड सेंसस कहते हैं. जो सेन्सस डिविडेंड है उसका सही
रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है. जिसके कारण युवाओं में असंतोष है.
बेरोजगारी चरम पर है. कार्यों की स्थिति दूसरी तरह से है चाइना से बढ़ते हुए आयात
और हमारे देश की सरकार उसको सही रूप में कार्य नहीं कर रही है.
मुलायम सिंह यादव
जी ने मुख्यमंत्री बनने के बाद यूपी में एक के बाद एक ऐतिहासिक कार्य किये हैं. बाबा
साहब डॉ भीम राव अम्बेडकर जी के अस्थि कलश को दर्शनार्थ रखने हेतु विधानसभा के ठीक
सामने अम्बेडकर महासभा को जमीन/भवन देने से लेकर इस मुख्य मार्ग का नाम अम्बेडकर
मार्ग रखने का ऐतिहासिक कार्य नेताजी श्री मुलायम सिंह यादव जी द्वारा ही किया गया
था. यह अलग बात है कि बाद में बहन जी मायावती जी ने यूपी को अम्बेडकरमय बना डाला.
अम्बेडकर ग्राम की अवधारणा माननीय नेताजी की थी. जिसे बाद में बहनजी ने इस्तेमाल
करना शुरू किया.