(हिमालयी क्षेत्र में बढ़ते भूकम्प के खतरे के संदर्भ में)
यह सच है कि आपदाओं को रोक
पाना न तो इंसान के बस में है और न मशीनों के। आपदाऐं मानव निर्मित हों या
प्राकृतिक अपने पीछे तबाही के निशान, दर्द
भरे चेहरे, आँसुओं
से भीगी आँखें, आशा
भरी निगाहें और अपनों को ढूँढते हाथ छोड़ जाती है। ज्यादातर आपदाऐं भौतिक नुकसान तो
पहुंचाती ही है, लाखों
जाने भी ले लेती है। जाहिर है कि आपदाऐं तो आती ही रहेगी लेकिन यदि हमने इन आपदाओं
का समुचित प्रबंधन या नियन्त्रण नहीं किया तो स्थिति अधिक भयावह होगी।हिमालयी क्षेत्र की जटिल परिस्थितियाँ हमेशा से ही मानव के समक्ष चुनौती प्रस्तुत करती रही है। कुछ समय से इस परिक्षेत्र में ऐसी गतिविधियाँ हो रही हैं जो जीव-जगत् के अस्तित्व के लिए खतरे का संकेत है। सम्पूर्ण विश्व में हो रहे जलवायु परिवर्तन का प्रभाव हिमालय के परिस्थितिक तंत्र पर भी पड़ रहा है। लिहाजा हिमालय का जिस प्रकार मिजाज बदल रहा है और उसमें जिस प्रकार के परिवर्तन हो रहे हैं वह भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं है। प्रोफेसर और भू-विज्ञानी प्रो0 जावेद एन मलिक ने बताया है कि हिमालय हर साल एक मिलीमीटर बढ़ रहा है। वही साल भर में बंगलूरू और तिब्बती प्लेट की आंतरिक दूरी 50 मिलीमीटर कम हो रही है। हिमालयन श्रृंखला में 20 मिलीमीटर की बढ़ोतरी दर्ज की जा रही है। जोकि खतरनाक संकेत है। जमीनी प्लेट ऊपर नीचे या फिर एक दूसरे से भिडने की स्थिति में है। दबाव भी बना हुआ है, ऐसे में अगर प्लेट टूटा तो भूकंप आएगा।
नेपाल और भारत दोनों ही हिमालय रेंज में बसे हुये है। दोनों देश भूकम्प जोन के अंतर्गत आते हैं। भूकम्प आपदा दोनों ही देशों के लिए बड़ी चुनौती है, क्योंकि भूकम्प से संबंधित चेतावनी पूर्व में नहीं दी जा सकती और इससे कुछ ही क्षणों में भारी तबाही हो जाती है। ऐसा लगता है कि भूकम्प मानव जान की दुश्मन है, मगर हकीकत में ऐसा नहीं है। यह कहावत गलत नहीं है कि हमें भूकम्प नहीं मारता बल्कि ऊँची-ऊँची इमारते व भवन मारते हैं। भूकम्प आना स्वाभाविक है, भलाई इसी में है कि हमे इस आपदा से निपटने के लिए खुद को सशक्त बनाना होगा। दरअसल, हमने आपदा आने के बाद की तैयारी काफी कर ली है। जैसे कि एनडीआरएफ की मजबूत टीम हमारे पास है जो पड़ोसी देशों को मदद पहुंचाने में सक्षम है। परन्तु आपदा से पूर्व की तैयारी पर अभी भी बहुत काम किये जाने की आवश्यकता है। भूकंप आने के बाद नेपाल में जान-माल के व्यापक नुकसान की वजह शायद यहीं है कि वहाँ भी अन्य विकासशील देशों की भाँति आपदा-पूर्व प्रबंधन पर सटीक काम नहीं हुआ है। आपदा पूर्व प्रबंधन के मामले में भारत की स्थिति भी नेपाल जैसी ही है। भारत में मेट्रो सिटीज में अनाधिकृत काॅलोनियाँ और बहुमंजिली इमारतें है। लेकिन ये कितने भूकंप रोधी बने हुये है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि नेपाल में आये भूकंप ने भारत की इमारतों को भी हिला दिया। काठमांडू की भांति हमारी राजधानी दिल्ली भूकम्प के लिहाज से संवेदनशील क्षेत्रों में गिनी जाती है, अगर यहां नेपाल पर भूकम्प आता तो तबाही का मंजर काफी ज्यादा होता, इसलिए बेतरतीब हो रहे निर्माण कार्य यहाँ नुकसान पहुँचा सकते हैं। हमे समझना होगा कि भूकंप रोधी मकान के लिए मकान का एक यूनिट के रूप में बनना जरूरी है। जिसे बिल्डिर अनदेखा कर रहे हैं। मकान ऐसे बने हों जिसमें लचक हो, और यह लचक तभी आयेगी जब बिल्डिंग कोड का हम पालन करें। लचक इसलिए भी जरूरी है कि भूकंप के समय बहुमंजिली इमारतों में भूतल की तुलना में ऊपरी मंजिलों में ज्यादा हलचल होती है। इसलिए इमारत का ऐसा जरूरी बनना जरूरी है कि धरती के दो या तीन डिग्री घूमने पर भी उसे नुकसान न हो। परन्तु बिल्डिंग कोड़ की अनदेखी की जा रही है, जिसके लिए सरकार को कठोर कदम उठाने की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त भी कुछ अन्य प्रयास किये जाने की आवश्यकता है जैसे माइक्रोजोनिंग का कार्य। लोगों को जागरूक करके भी व्यापक नुकसान से बचा जा सकता है। कुछ लोगों का मानना है कि शहरीकरण ने भी भूकंप की मारकता बढ़ाई है, परन्तु यह गलत है। समस्या बढ़ रहा शहरीकरण नहीं अपितु उन मानकों का पालन नहीं करना है, जो भूकंप जैसी आपदाओं से लड़ने के लिए तय किये गये हैं। हम आपदा से बाद की स्थिति से लड़ने की तो सोच रहे हैं, पर आपदा पूर्व की तैयारी पर कम ध्यान दे रहे है।
जबकि वैज्ञानिक सर्वेक्षणों के आधार पर यह सिद्ध हो चुका है कि हिमालय परिक्षेत्र कमजोर है तथा भूकम्पीय दृष्टि से अत्यन्त संवेदनशील है जिसका प्रभाव भारत के मैदानी क्षेत्र यू0पी0, दिल्ली, मध्य प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ, पंजाब इत्यादि पर भी पड़ेगा। अतः संस्थागत संरचना जैसे- नियम, कानून व दिशा-निर्देशों में निश्चय ही सुधार किये जाने की आवश्यकता है। वित्त मंत्रालय ने स्वीकृति की पूर्व शर्त के रूप में सभी नयी परियोजनाओं को आपदा शमन के नजरिये से छानबीन करने के आदेश तो जारी किये हैं, परन्तु इसको प्रमाणित करने वाले अधिकारियों के पास काम करने की वांछित योग्यता ही नहीं है।
आपदा को लेकर बहुत से विद्वजनों ने लिखा हैं , जिसमे हर्ष के0 गुप्ता ने अपनी पुस्तक ‘‘डिजास्टर मैनेजमेन्ट’’ (2003) में भारत आपदा प्रबंधन के ऊपर प्रकाश डाला है। लेखक के अनुसार हम आपदाओं से निपटने के लिए पहले से कोई तैयारी नहीं करते हैं, बल्कि जब आपदा घटित हो जाती है तो आनन-फानन में आधी अधूरी तैयारी के साथ काम करना प्रारम्भ करते हैं। जब कोई घटना घटित हो जाती है तो हमारी सरकार भी आपदा से निपटने के लिए बहुत सारी घोषणाऐं करती है, पर वे सभी अंशकालिक होती है, आपदा के कुछ समय पश्चात ही हम आपदा प्रबंधन पर बात करना छोड़ अन्य कार्यों में व्यस्त हो जाते हैं। यह बात सच है कि हम आपदाओं को आने से नहीं रोक सकते परन्तु आपदा से निपटने के लिए उचित प्रबंधन कर इसके प्रभाव को कम कर सकते हैं।
भूकंप क्यों आता है? नामक शोध लेख में इन्द्रनील भट्टाचार्जों (2011) ने भूकंप के कारण व प्रभाव पर प्रकाश डाला है। भूकंप के लिए प्राकृतिक व मानवजनित दोनों ही कारणों पर प्रकाश डाला है। अक्सर भूकंप भूगर्भीय दोषों के कारण आते हैं। भारी मात्रा में गैस प्रवास, पृथ्वी के भीतर मुख्यतः गहरी मीथेन, ज्वालामुखी, भूस्खलन और नाभिकीय परीक्षण ऐसे मुख्य दोष हैं। प्लेट सीमाऐं तीन प्रकार के होते हैं। रूपांतरित, अपसारी या अभिकेन्द्रित। ज्यादातर भूकंप रूपांतरित या फिर अभिकेन्द्रित सीमाओं पर होती हैं। रूपांतरित सीमाओं पर दो प्लेट एक-दूसरे से घिसकर जाते हैं। इस घर्षण के कारण दो प्लेट के सीमा पर तनाव उत्पन्न होता है। यह तनाव बढ़ते-बढ़ते ऐसी स्थिति उत्पन्न कर देता है जब भूगर्भीय पत्थर इस तनाव को झेल न पाने के कारण अकस्मात टूटते हैं। तनाव ऊर्जा का बाहर आना ही भूकंप को जन्म देता है। जिससे अपार जनधन की हानि होती हैं।
भूपटल में होने वाली आकस्मिक कंपन या गति जिसकी उत्पत्ति प्राकृतिक रूप से भूतल के नीचे होती है। भूगर्भिक हलचलों के कारण भूपटल तथा उसकी शैली में संपीडन एवं तनाव उत्पन्न होने से शैलों से उथल पुथल होती है जिससे भूकंप उत्पन्न होता है। पवर्तनिक क्रिया, ज्वालामुखी क्रिया, समास्थितिक समायोजन तथा वितलीय कारणों से भूकंप की उत्पत्ति होती है। अब तक जितने भूकंप इस भूमंडल पर हुये हैं, यदि उन सबका अभिलेख हमारे पास होता तो उससे स्पष्ट हो जाता है कि पृथ्वी तल पर कोई ऐसा स्थान नहीं है जहाँ कभी न कभी भूकंप न आया हो। अत्यन्त प्राचीन काल से ही भूकंप मानव के सम्मुख एक समस्या बनकर उपस्थित होता रहा है। प्राचीन काल में इसे दैवी प्रकोप समझा जाता रहा। 16वीं और 17वीं शताब्दी में लोगों का अनुमान था कि पृथ्वी के अन्दर रासायनिक कारणों से तथा गैसों के विस्फोटन से भूकंप होता है। 1874 ई0 में वैज्ञानिक एडवर्ड जुस ने अपनी खोजों के आधार पर कहा था कि भूकंप भ्रंश की सीध में भूपर्पटी के खंडन या फिसलने से होता है। ऐसे भूकंप को विर्वतनिक भूकंप कहते हैं। (इंडिया वाटर पोर्टल)।
‘‘भारत में आपदा प्रबंधन’’ नामक लेख में टी नंदकुमार (योजना मार्च 2012) ने बताया है कि भारत के मामले में बाढ़, समुद्री तूफान, और सूखे जैसी प्राकृतिक आपदाऐं देश के किसी न किसी भाग में आती रहती हैं। देश के कई ऐसे जिले हैं, जहाँ कई प्रकार की आपदाऐं आती हैं और पूरे साल कोई-न-कोई आपदा चला करती है। भूकंप, ओलावृश्टि, बर्फोले तूफान और भूस्खलन भारत के कुछ भागों में आते रहते है, लेकिन इनसे होने वाली तबाही इस बात पर निर्भर करती है कि वह जगह इनसे कितने प्रभावित है। जिन विकसित देशों में प्राकृतिक आपदाओं की पूर्व सूचना देने वाले आधुनिक तंत्र और राहत कार्यक्रम मौजूद है, वहाँ इनके कारण होने वाली तबाही कम हो जाती है, लेकिन जिन देशों में तैयारी कम होती है और राहत कार्यक्रम काफी नहीं होते वहाँ प्राकृतिक आपदाओं से बहुत विनाश होता है। भारत में अन्य विकासशील देशों के मुकाबले प्राकृतिक आपदाओं के कारण जान-माल का नुकसान काफी ज्यादा होता है।

भारत के भू-भाग का लगभग 59 प्रतिशत भूकंप की संभावना वाला क्षेत्र है (गृह मंत्रालय 2011) हिमालय और उसके आस-पास के क्षेत्र, पूर्वोत्तर, गुजरात, के कुछ
क्षेत्र और अंडमान निकोबार द्वीप समूह भूकंपीय दृष्टि से सबसे सक्रिय क्षेत्र है।
देश के 68
प्रतिशत भाग में कभी हल्का तो कभी भीषण सूखा पड़ता रहता है, 38 प्रतिशत क्षेत्र में 750-1125 मिमी
वर्षा होती है, तो 33 प्रतिशत में 750 मिमी
से कम वर्षा होती है। भारत के पश्चिमी और प्रायद्वीपीय राज्यों के मुख्यतः शुष्क, अर्द्ध-शुष्क और कम नमी वाले क्षेत्रों में आमतौर से सूखे से दो-चार होना पड़ता
है। भारत के 7,500 किमी
लंबे तटवर्ती क्षेत्र का लगभग 71
प्रतिशत भूकंप के प्रति संवेदनशील है। अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह, आंध्रप्रदेश, ओडिशा, तमिलनाडु और पुडुचेरी में प्रायः भूकंप के झटके आते रहते हैं। (भारत में आपदा
का संक्षिप्त परिचय- जी0
पद्मनाभन, योजना
मार्च 2012)।
हम आपदाओं के दौर में जी रहे हैं। यह सच है कि इन आपदाओं को रोक पाना न तो इंसान के बस में है न ही मशीनों के आपदाऐं मानव निर्मित हो या प्राकृतिक जिंदगी में गहरा दर्द छोड़ जाती हैं। ज्यादातर आपदाऐं भौतिक नुकसान तो पहुंचाती ही है, लाखों जाने भी ले लेती हैं। भारतीय संदर्भ में यदि हम प्राकृतिक आपदाओं की बात करें तो आपदाओं से ज्यादा इसके समुचित प्रबंध पर चर्चा करना जरूरी है। वर्ष 2001 में जब भीषण भूकंप आया था तो सरकार ने घोषणा की थी कि देश में आपदा प्रबंधन को विश्वस्तरीय बनाया जायेगा। आज 13 वर्ष बीत जाने के पश्चात भी आपदा प्रबंधन की तैयारियों को देखें तो कोई खास बदलाव नजर नहीं आता है। बेहतर आपदा प्रबंधन के लिए हमें दो शब्दों को बराबर ध्यान में रखना चाहिए- जानकारी और बचाव (योजना मार्च, 2013)
डॉ पृथ्वीश नाग ने अपने लेख ‘‘खतरे को समझने का अवसर’’ (2015 दैनिक जागरण) में बताया है कि विनाशकारी भूकंप पर पूर्ण नियंत्रण असंभव है। बचाव के उपाय ही हमारे पास एकमात्र विकल्प है। पिछली शताब्दी के सौ वर्षों के दौरान भारत तथा आसपास के देशों से जुड़े क्षेत्रों में 5.0 गहनता के भूकंपों की एक पूरी की पूरी श्रृंखला बताती है कि भारत, नेपाल और यह पूरा क्षेत्र भूकंपीय क्षेत्र है। नेपाल में आये भूकंप के बड़े कंपन के बाद एक ही दिन में 10 से अधिक कंपन तथा लगातार एक पखवाडे से हिलती धरती से स्पष्ट संकेत हैं कि भूकंप के बाद की भौगोलिक चुनौतियाँ और भी बड़ी है। भूकंप की भविष्यवाणी और आपदा प्रबंधन, दो ऐसे आयाम है। जिन पर तात्कालिक तौर पर पूर्ण ध्यान दिया जाना और प्रयास प्रारम्भ करना आवश्यक है। सटीक भविष्यवाणी तथा भूकंप संबंधी अध्ययन के लिए देश में स्थापित 40 भूकंप रिकोर्डिंग केन्द्र तथा हैदराबाद में स्थापित सुनामी वार्निंग सेंटर भूगर्भ की गतिविधियों तथा समुद्री लहरों का अध्ययन करते हैं, परन्तु अभी तक सटीक भविष्यवाणी क्षमता संभव नहीं हो सकी हैं।
‘‘नेपाल से भारत तक तबाही’’ नामक लेख में बताया गया है कि हमारा पड़ोसी देश नेपाल भूकंप की जिस त्रासदी से दो-चार हुआ है, वह केवल रिक्टर स्केल पर तीव्रता के लिहाज से नहीं, बल्कि तबाही के लिहाज से भी भीषण है। 1934 का जो भूकंप हमारी स्मृति में एक दुःस्वप्न की तरह गड़ा हुआ है, इसे उसके बाद का सबसे बड़ा भूकंप बताया जा रहा है। यहाँ मरने वालों का आँकडा जिस तरह बढ़ता जा रहा है उससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि भूकंप ने वहाँ कितने बड़े पैमाने पर तबाही मचाई होगी। धरहरा टावर का ध्वस्त हो जाना और माउंट एवरेस्ट के कई बेस कैंपों में हुई तबाही तो विध्वंस के नमूने भर है। ऐसी हर त्रासदी के बाद भूकंप रोधी निर्माण की जरूरत पर चर्चा होती है, लेकिन कुछ दिनों के शोर-शराबे के बाद जीवन अपने पुराने ढर्रे पर चलने लगता है। (अमर उजाला, 27 अप्रैल, 2015)
अवधारणा
हमारी धरती मुख्य तौर पर चार परतों से बनी हुई है, इनर कोर, आउटर, कोर, मैनटल और क्रस्ट। क्रस्ट और ऊपरी मैन्टल को लिथोस्फेयर कहते हैं। ये 50 किलोमीटर की मोटी परत, वर्गों में बंटी हुई है, जिन्हें टैकटोनिक प्लेटस कहा जाता है। ये टैकटोनिक प्लेटस अपनी जगह से हिलती रहती है, लेकिन जब ये बहुत ज्यादा हिल जाती है तो भूकंप आ जाता है। ये प्लेटस क्षैतिज और ऊध्र्वाधर, दोनों ही तरह से अपनी जगह से हिल सकती हैं। इसके बाद वे अपनी जगह तलाशती हैं और ऐसे में एक प्लेट दूसरी के नीचे आ जाती है।भारतीय उपमहाद्वीप में भूकंप का खतरा हर जगह अलग-अलग है। भारत को भूकंप के क्षेत्र के आधार पर चार हिस्सों जोन-2, जोन-3, जोन-4, तथा जोन-5 में बांटा गया है। जोन 2 सबसे कम खतरे वाला जोन हे तथा जोन-5 को सर्वाधिक खतरनाक जोन माना गया है। उत्तर पूर्व के सभी राज्य, जम्मू-कश्मीर, उत्तरखण्ड, तथा हिमाचल प्रदेश के कुछ हिस्से जोन-5 में ही आते हैं। उत्तराखंड के कम ऊँचाई वाले हिस्सों से लेकर उत्तर प्रदेश के ज्यादातर हिस्से तथा दिल्ली जोन-4 में आते हैं। मध्य भारत अपेक्षाकृत कम खतरे वाले हिस्से जोन-3 में आता है, जबकि दक्षिण के ज्यादातर हिस्से सीमित खतरे वाले जोन-2 में आते हैं। हालांकि राजधानी दिल्ली में ऐसे कई इलाके है जो जोन-5 की तरह खतरे वाले हो सकते हैं। इसी प्रकार दक्षिण राज्यों में कई स्थान ऐसे हो सकते हैं जो जोन-4 या जोन-5 जैसे खतरे वाले हो सकते हैं। भारत में लातूर (महाराष्ट्र), कच्छ (गुजरात) व जम्मू कश्मीर में बेहद भयानक भूकंप आ चुके हैं। इसी तरह इंडोनेशिया और फिलीपींस के समुद्र में आये भयानक भूकंप से उठी सुनामी भारत, श्रीलंका तथा अफ्रीका तक लाखों लोगों की जान ले चुकी है। हाल ही में नेपाल में आये भूकंप से नेपाल में भारी तबाही हुई व हजारों लोगों की जान गयी। नेपाल भूकंप से भारत भी प्रभावित हुआ तथा भूकंप के झटके बिहार, बंगाल, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश व दिल्ली तक महसूस किये गये। भारत में भी सैकड़ों लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा।
यूएस जियोलोजिकल सर्वें के मुताबिक हिमालयी क्षेत्र में थ्रस्ट फाल्ट नेपाल में आये भूकंप की मुख्य वजह है। इसके चलते बड़े फाल्ट क्षेत्र में खिसकाव उत्पन्न होता है। ये दरसल इस क्षेत्र में मौजूद इंडिया और यूरेशिया प्लेटों के बीच टकराव के कारण उत्पन्न होता है। ये ही वास्तव में हिमालय क्षेत्रों में भूकंप का प्रमुख कारण है। ये प्लेटें 40-50 मिमी प्रति वर्ष की गति से चलायमान है। यूरेशिया प्लेट के नीचे भारतीय प्लेटों की वजह से इस क्षेत्र में भूकंप आने की वजह से पृथ्वी पर यह भूकंप के लिहाज से सबसे संवेदनशील क्षेत्र है।
इंडिया-यूरेशिया प्लेट- इस प्लेट की बाउंड्री व्यापक है। यह भारत में उत्तर में सिंधुसांगपो सुतूर जोन से दक्षिण में हिमालयी फ्रंट क्षेत्र तक फैला है। इस संकीर्ण हिमालयी फ्रंट में पूर्व-पश्चिम दिशा की ओर अनेक समानान्तर संरचनाऐं है। इन क्षेत्रों में स्थित थ्रस्ट फाल्ट में होने वाली गति से यहां भूकंप आने की हमेशा आशंका बनी रहती है। एक अनुसंधान में कहा गया है कि मध्य हिमालय के सेस्मिक गैप में भूमि संरचना के तीव्र बदलाव हो रहे हैं। हिमालय के अगले हिस्से में स्थित सेस्मिक गैप 7,00 किलोमीटर का है। इस क्षेत्र में 200-500 वर्षों में कोई भूकंप नहीं आया है। इस खंड के आधे पश्चिमी हिस्से पर उत्तराखण्ड़ स्थित है। भूभौतिकी वैज्ञानिकों ने आशंका जतायी कि उत्तराखण्ड़ में एक खतरनाक भूकंप आने का खतरा है।
जब हम प्राकृतिक आपदाओं के ऊपर बात कर रहे हैं तो इसके समुचित प्रबंधन पर भी बात करना जरूरी है। यह बात सामने आ चुकी है कि विश्व के किसी भी देश के पास ऐसी मशीन नहीं है जो यह बता सके कि भूकंप कब और कहाँ आयेगा। जापान जैसे देश के पास भी इसका अभाव है। अतः भूकंप को रोका नहीं जा सकता है, परन्तु इसके प्रभाव को कम करने का प्रबंधन किया जा सकता है। इसके लिए दो बातों पर ध्यान देना जरूरी है- जानकारी और बचाव। किसी भी आपदा या आकस्मिता से बचाव में जानकारी अहम् भूमिका निभा सकती है। जानकारी यानी आपदाऐं क्या हैं, कितने प्रकार की होती हैं, कैसे आती है, कब आती है, किस प्रकार का नुकसान करती हैं आदि। इस प्रकार की बातों की सभी को जानकारी होनी चाहिए, तभी इससे होने वाली तबाही को कम किया जा सकता है।
आपदा के जोखिम को कम करने के प्रयासों को विकास के एक मुद्दे के रूप में देखे जाने की आवश्यकता है, परन्तु व्यवहार में ऐसा नहीं हो रहा है। कृषि, खाद्य सुरक्षा, जल संसाधन, अद्योसंरचना और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों पर विशेष ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है।
मकान बनाते समय बिल्डिंग कोड़ को ध्यान में रखे जाने की आवश्यकता है। और इसका पालन पूरे देश में होना चाहिए क्योंकि भूकम्प मात्र पर्वतीय क्षेत्रों की ही समस्या नहीं है बल्कि मैदानी क्षेत्र भी इससे प्रभावित है।
भीषण आपदाओं से निपटने के अनेक पारम्परिक ज्ञान को पुर्नजीवित कर वैज्ञानिक पुट देकर उन्हें और सुदृढ़ बनाये जाने की आवश्यकता है।
आपदा प्रबंधन को केवल सरकार के एक विभाग के कार्य के रूप में नहीं बल्कि यह सभी विभागों और विकास सहभागियों का उत्तरदायित्व है।
दुनिया के लगभग हर भाग में आपदाऐं आती है। भारत व नेपाल दोनों के मामले में बाढ़, भूकम्प, समुद्री तूफान जैसी प्राकृतिक आपदाऐं देश के किसी न किसी भाग में आती रहती हैं। जिनसे संरचनात्मक ढाँचों का बिखराव तो होता ही है, साथ ही अपार जन धन की हानि भी होती हैं। अधिकांश विकासशील देश सतत् विकास की दौड़ में सरपट दौड़ रहे हैं, फलस्वरूप पर्यावरणीय मानकों की अनदेखी की जा रही है, इन सब कारणों से भी प्राकृतिक आपदाओं की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है।
1. केन्द्र सरकार व राज्य सरकार की ढुलमुल नीतियों के फलस्वरूप भूकंप रोधी इमारत का अभाव है।
2. इमारत बनवाते समय भूकंप रोधी तकनीक का इस्तेमाल नहीं किया जाता, फलस्वरूप और अधिक जान-माल की हानि होती हैं।
3. प्राकृतिक आपदा के लिए बहुत हद तक मनुष्य जिम्मेदार है।
4. स्थानीय राजनैतिक पार्टियाँ अपने लाभ के लिए निजी कंपनियों को बड़े बड़े प्रोजेक्ट पर्यावरण के मानकों को ताक पर रखकर उपलब्ध करा रही हैं।
5. अंधाधुंध प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के चलते हिमालयी क्षेत्रों में क्षरण की प्रवृति बढ़ी है।
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welcome to all of you dear friends
जवाब देंहटाएंNice Article Bhupendra ji
जवाब देंहटाएंExcellent and informative article
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